शक्ति की आराधना और समाज में नारीशक्ति की वास्तविकता: नवरात्रि पर एक आत्ममंथन
- Sonal Goel

- Oct 4
- 6 min read
मेरे प्रिय पाठकों,
आप सभी को नवरात्रि, दुर्गापूजा और दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।

नवरात्रि का समय आते ही पूरा देश देवी दुर्गा की भक्ति में डूब जाता है। घर-घर में कलश स्थापित होते हैं, दुर्गा सप्तशती का पाठ होता है, और हम सभी उन्हें शक्ति, साहस और अजेय संकल्प का प्रतीक मानकर नमन करते हैं। माँ दुर्गा, जो महिषासुर का वध करती हैं, हमें यह संदेश देती हैं कि जब अन्याय और अधर्म अपनी सीमा पार कर दे तो स्त्री ही वह शक्ति बनकर खड़ी होती है जो संतुलन स्थापित करती है। नारी शक्ति केवल शब्द नहीं बल्कि समाज की आधारशिला है। जब एक महिला सशक्त होती है तो न केवल परिवार, बल्कि संपूर्ण समाज प्रगति की ओर बढ़ता है। जैसा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा है — 'जब हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो हम केवल एक वर्ग को आगे बढ़ाने की बात नहीं करते, बल्कि पूरे परिवार और पूरे समाज की प्रगति की बात करते हैं।
जिस नारी शक्ति को हम नौ दिनों तक देवी मानकर पूजते हैं, क्या हम उन्हें समाज में अपनी पहचान बनाने और आगे बढ़ने के लिए समान अवसर दे रहे हैं? यह सच है कि मंदिरों में हम नारी को 'शक्ति' कहकर आराधना करते हैं, लेकिन घर और समाज में क्या हम सचमुच उन्हें निर्णय लेने और नेतृत्व करने का समान अधिकार और अवसर प्रदान कर रहे हैं?
सरकार की पहल और समाज की सोच
आज 2025 में, जब हम महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण की दिशा में किए गए कार्यों की समीक्षा करते हैं, तो हम पाएंगे कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में देश-प्रदेश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक और महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं।
न्यायपालिका से लेकर संसद तक, महिलाओं को सशक्त बनाने के प्रयास लगातार हुए हैं। हाल ही में पारित नारी शक्ति वंदन अधिनियम इसका बड़ा उदाहरण है, जिसने महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में आरक्षण देकर उन्हें राजनीति और नीति-निर्माण में अधिक भागीदारी का अवसर दिया है। “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे अभियानों ने शिक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण जागरूकता पैदा की।
मिशन चंद्रयान-3 की प्रमुख वैज्ञानिक और मिशन की कमान संभालने वाली महिला वैज्ञानिक रितु करिधल श्रीवास्तव जी हों या फिर जम्मू-कश्मीर के दुनिया का सबसे ऊंचे रेलवे पुल चिनाब ब्रिज को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली प्रो. जी माधवी लता जी हों, दिल्ली में मुख्यमंत्री के पद को सुशोभित कर रही श्रीमती रेखा गुप्ता जी हों, या फिर देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हमारी महामहिम राष्ट्रपति महोदया द्रौपदी मुर्मू जी हों, महिलाएं आज हर क्षेत्र में अग्रणी और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। ऑपरेशन सिंदूर में कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी और विंग कमांडर वयोमिका सिंह की भूमिका को पूरे देश ने देखा, सराहा और उसपर गर्व किया। कहने का मतलब है कि सेना से लेकर स्पेस तक महिलाएं ऐसे-ऐसे कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं जिनकी कुछ वर्ष पूर्व कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
लेकिन बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या केवल कानून और नीतियाँ ही समाज बदल सकती हैं? यदि मानसिकता वही रहे कि “लड़की घर चलाने के लिए है” और “लड़का नाम रोशन करने के लिए”, तो क्या हम सचमुच प्रगति कर पाएंगे?
हमें यह समझना होगा कि स्त्री का आकाश उतना ही बड़ा है जितना पुरुष का, बस समाज के रूप में हमें उसकी उड़ान रोकना बंद करना होगा।
असमानता की ठोस तस्वीर
आज भी लाखों लड़कियाँ स्कूल छोड़ने को मजबूर हैं क्योंकि परिवार मानता है कि उनकी पढ़ाई “ज्यादा ज़रूरी नहीं”। कार्यस्थलों पर महिलाएँ “कम योग्य” मानकर कई बार प्रमोशन से वंचित कर दी जाती हैं। घरेलू कामकाज को अब भी “महिला की जिम्मेदारी” समझा जाता है, भले ही वह बाहर नौकरी कर रही हो।
और सबसे दर्दनाक तस्वीर उन महिलाओं की है जो हिंसा की शिकार होती हैं। अभी हाल ही में मुझे एसिड अटैक सर्वाइवर्स के लिए काम करने वाली देश की एक नामचीन समाजसेवी संगठन ने अपने एक कार्यक्रम में विशिष्ट सम्मानित अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जिसमें इंग्लैंड के विभिन्न प्रांतों की सौंदर्य प्रतियोगिताओं की विजेता शामिल हुई और उन्होंने एसिड अटैक सर्वाइवर्स के संघर्षों पर समाज का ध्यान आकृष्ट कराने की एक सफ़ल कोशिश की। कार्यक्रम से आकर मैं सोचती रही की दूसरे देश से आकर लोग हमारे समाज की स्त्रियों और संघर्षों पर समाज का ध्यान दिलाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन ऐसी पहल हमारे अपने समाज के बीच से क्यों नहीं होती?
मेरा आप सभी से आग्रह है। समय निकालकर ज़रा एसिड अटैक सर्वाइवर्स के संघर्षों को देखिए – वे केवल इसलिए जीवन भर दर्द और अपमान झेलती हैं क्योंकि किसी पुरुष ने यह सोच लिया कि उसका “ना” सुनना उसकी तौहीन है। यह तथ्य आपको भीतर तक झकझोर देगा कि 80% से ज़्यादा एसिड अटैक मामलों में अटैक करने वाले उनकी जान-पहचान या परिवार के लोग थे। सोचिए, यह वही समाज है जो देवी को सिंह पर सवार देखकर ताली बजाता है, लेकिन असल ज़िंदगी में किसी महिला के चेहरे पर तेज़ाब डालकर उसे आत्मविश्वास से जीने लायक भी नहीं छोड़ता।
क्या यह विरोधाभास हमें झकझोरता नहीं?
पूजा ज़रूरी है मगर असल ज़िंदगी में बराबरी और सम्मान की ज़रूरत
नवरात्रि में हम कन्याओं का पूजन करते हैं, उन्हें भोजन कराते हैं और यह मानते हैं कि उनमें देवी का अंश है। लेकिन साल के बाकी दिनों में वही कन्या अगर अपने सपनों के लिए संघर्ष करे तो अक्सर उसे रोकने वाले भी हम ही होते हैं।
अगर हम सचमुच “नारी को शक्ति” मानते हैं तो उसकी शिक्षा, उसका आत्मसम्मान और उसका निर्णय लेने का समान अधिकार सुरक्षित करना ही असली पूजा है। मंदिर में दिए जलाने से ज़्यादा ज़रूरी है कि घर और समाज में बराबरी की लौ जलाएँ।
मुझे याद है, जब 2014 में, त्रिपुरा के गोमती ज़िले में हमने “Nandini Campaign” की शुरुआत की थी। इस पहल का मक़सद महिलाओं और बेटियों के प्रति समाज की सोच बदलना और उन्हें सशक्त बनाना था। इस अभियान के अंतर्गत कई नये प्रयोग किए गए — जैसे कामकाजी महिलाओं के लिए क्रेच की स्थापना और स्थानीय पर्व-त्योहारों को महिला सशक्तिकरण के संदेश से जोड़ा गया। इन प्रयासों ने समाज को यह सोचने पर मजबूर किया कि बेटियाँ केवल घर की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि प्रगति और विकास की धुरी हैं।
इसके बाद, 2017 में हरियाणा के झज्जर ज़िले में हमने Beti Bachao, Beti Padhao पहल के अंतर्गत “Mahari Laddo – Soch Me Dastak” अभियान शुरू किया। गाँव की महिलाओं से बातचीत में खुलकर यह सामने आया कि आज भी कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा और पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियाँ समाज में मौजूद हैं। इसी के खिलाफ इस अभियान ने जागरूकता की एक मज़बूत दस्तक दी।
जिस देश में हम दुर्गा को ‘संसार चलाने वाली’ मानते हैं, वहाँ आज भी कई महिलाओं को केवल घर की चारदीवारी तक सीमित समझा जाता हैं। यह सोच बदलना केवल एक सरकारी पहल नहीं, बल्कि हम सबकी साझा जिम्मेदारी है।
बदलाव की शुरुआत कहाँ से?
समाज का चेहरा तभी बदलता है जब व्यक्ति बदलता है। हमें अपने घरों से शुरुआत करनी होगी:
बेटियों और बेटों दोनों को समान अवसर दें।
बेटियों की शिक्षा भी उतनी ही ज़रूरी है। ज़रूरी है कि उन्हें भी लड़कों के समान शिक्षा के अवसर मिलें।
बेटियों के सपनों को “गैर-ज़रूरी” कहकर छोटा मत कीजिए।
बदलाव तब आएगा जब एक पिता अपनी बेटी को उतने ही गर्व से पेश करेगा जितना अपने बेटे को करता है, जब एक परिवार अपनी बहू की नौकरी को उतना ही सम्मान देगा जितना बेटे की नौकरी को देता है।
शक्ति का सही अर्थ
माँ दुर्गा केवल शक्ति की मूर्ति नहीं हैं, वे संतुलन, करुणा और न्याय की भी प्रतीक हैं। यदि हम उनके संदेश को सही मायनों में समझें, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि “नारी केवल पूजने की वस्तु नहीं, बल्कि बराबरी से जीने का अधिकार रखने वाली इंसान है।”
सशक्तिकरण का मतलब केवल संसद या बोर्डरूम में संख्या बढ़ाना नहीं है, बल्कि हर गली, हर घर, हर दिल में यह भरोसा जगाना है कि स्त्री भी अपनी तकदीर खुद लिख सकती है।
अंत में – एक विनम्र आग्रह
इस नवरात्रि जब हम माँ दुर्गा की आराधना करें, तो एक पल ठहरकर अपने आस-पास देखें। क्या हमारे घर, हमारे दफ़्तर, हमारी सोच सचमुच उस पूजा के अनुरूप हैं?
एक एसिड अटैक सर्वाइवर की मुस्कान, जिसने तमाम दर्द के बावजूद हार नहीं मानी, हमें यह सिखाती है कि स्त्री में असीम साहस है। लेकिन क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं कि उसके जीवन से यह दर्द ही मिटा दें?
नवरात्रि आत्ममंथन का अवसर भी है। देवी से यही प्रार्थना करें कि वो हमें वह दृष्टि दें जिससे हम हर स्त्री में उसी शक्ति को देख सकें, जिसे हम नौ दिनों तक पूजते हैं।
क्योंकि असली विजय तभी होगी जब नारी केवल पूजनीय नहीं बल्कि समान भागीदारी वाली भी बने। यही सच्चे अर्थों में शक्ति की पूजा होगी।
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